पाप की गठरी सर पे उठाए
फिरता रहा मारा-मारा ,
मृगतृष्णा में उलझा रहा मैं
सर्वस्व अपना हारा ।
सबकुछ लुटाकर अपना मैं स्वामी
आया शरण में हूँ तेरे ,
इस मूरख को थोड़ी मति दो
दाता अब तो मेरे ।
अपने अहम् में तुमको ना जाना
खुदको बड़ा सबसे माना ,
निज भुज बल पे था गर्व मुझे
आज मगर ये है जाना ।
तिनका क्या पर्वत भी तेरे
वश में सारा जहाँ है ,
तेरी मर्जी के बिना क्या
चलती हवा भी यहाँ है ।
झुका अपने शीश को चरणों में तेरे
तुझसे भला क्या माँगू ,
बिन मांगे इतना दिया है
माँगन भला क्यूँ चाँहू ।
इतना करम तुम मुझपे कर दो
मुझसे ही मुझको मिला दो ,
मोह माया अज्ञान के तम को
आँखों से मेरे मिटा दो ।
सेवक की भांति आया शरण में
आस लगी है तेरी ,
गिरते हुए को जरा उठा लो
इतनी अरज है मेरी ।
निशांत चौबे ‘ अज्ञानी’
२७.०१.२०१५