ज़िंदा हो तो दिखाओ
सर अपना यूँ ना झुकाओ ,
जुल्म आखिर कब तक सहोगे
आवाज़ अपनी हक़ में तो उठाओ ।
दूसरा कब तक तुम्हे चलाएगा
अपनी धुन में तुम्हे नचाएगा ,
ढूंढना तुम्हे ही होगा अपना मार्ग
दूसरा उसे तुम्हे कैसे दिखाएगा ।
समय अपना यूँ ना गँवाओ
इस जीवन में कुछ कर जाओ ,
कब तक बिस्तर पर पड़े रहोगे
अब आँखे खोलो और उठ जाओ ।
व्याकुल इतने क्यों तुम होते हो
दुनिया की भीड़ में क्यों खुदको खोते हो ,
निश्चित इस जीवन में बस अनिश्चितता है
यह जानकार भी क्यों रोते हो ।
जो दिल में है उसे बताओ
उठो अब और कदम बढ़ाओ ,
माना दुःखों से भरी है ये ज़िन्दगी
हँसो फिर भी तुम और हँसाओ ।
ज़िंदा हो तो दिखाओ ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
२७.०२.२०२०