जीवन

नश्वर है ये और क्षणिक भी है
कर्मों के द्वारा फलित भी है,
कहीं उमंग कहीं वेदना है
स्वप्न कहीं कहीं चेतना है ,
स्वर्ग कभी कभी नर्क यहीं है
हम सब का तो फर्क यहीं है ।

क्या है जीवन कौन जाने ?
किसको यहाँ फिर कौन माने ?
क्या करना है कैसे ठाने ?
खुद को आखिर कैसे जाने ?

जैसा है तू इसको जी ले
अमृत हो या विष हो पी ले ,
बहुतों का सपना था ये
हो के नहीं अपना था ये ,
आँखों में आँसू मन में थी आहें
बीच सफर में खो गई राहें ।

तेरा सफर तो चल रहा है
कल का सपना पल रहा है ,
तेरा सूरज जल रहा है
लेकिन वो भी ढल रहा है ।

एक समय ही बस तेरा है
फिर क्या तेरा क्या मेरा है ?
अपने समय को व्यर्थ ना कर
कुछ तो इसमें अर्थ तू भर ,
चला गया फिर ना आएगा
अंत में बस तू पछताएगा ।

बैठ ना अपने सर को झुकाकर
जी ले जीवन गम को भुलाकर ,
अपने हाथों इसको सजाकर
जा दुनिया से तू मुस्कुराकर ।

निशांत चौबे ‘ अज्ञानी ‘
२५.०१.२०२२

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