ज़िन्दगी

इस पल में होकर भी नहीं है
बरसों पुराणी फिर भी नई है ,
स्वछंद बहती निर्झर की भांति
कभी उदास तो कभी मुस्काती।

ज़िन्दगी कभी तू लगती पहेली,
और कभी लगती अपनी सहेली ।

तू क्या है ? तू क्यूँ है ?
कुछ कारण बस या यूँ है ,
तेरी बातें बस तू ही जाने
कुछ कहे कुछ अनकहे फ़साने ,
ज़िन्दगी कभी तू पास बुलाती
और कभी क्यूँ आँख दिखाती ?

ज़िन्दगी कभी तू लगती पहेली,
और कभी लगती अपनी सहेली ।

जो कुछ भी है बस तू है
मेरा वजूद भी तुझसे यूँ है ,
कभी इठलाती कभी शर्माती
हँसाती तू तो कभी रुलाती ,
कुछ जानी तो कुछ अनजानी
पर करती हमेशा तू मनमानी ।

जैसी भी है , तू है मेरी
तुझसे बस ये कहानी मेरी ,
तू है तो मैं हूँ , तू नहीं तो मैं ना
मेरा बस तुझसे इतना सा कहना ,
ज़िन्दगी कभी तू लगती पहेली,
और कभी लगती अपनी सहेली ।

निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
०४.०९.२०१८

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